Ek Bindu, main....
EK BINDU MAIN, DHARA TUM SWANS MAIN JEEVAN BHARA TUM. TUM HRIDAY TUM PRAN MERE. YUG ANANTO KI VARA TUM... EK BINDU MAIN.. DHARA TUM..
Wednesday, July 7, 2010
सद्भावना
उड़ने लगा है धुआँ ..
सुलगने लगी है झाड़ - फूंस..
सुना है तुम भी पैनी कर रहे हो
तलवार की धार..
जो अक्सर टूट गयी मूठ से
तुम भागते रहे..फिर जुड़े
युद्घ क्षेत्र की तरफ मुड़े..
फिर हारे फिर भागे
फिर से तुमको कहा गया
अभागे..
जानते हो क्यों..
क्योंकि ..
तुम्हारा अहं है.. सारथी..
तुम्हारी बुद्धि का..
तुम्हारी पिपासा ने
क्षीण कर दिया है..
तुम्हारी दृष्टि को...
तुम जानते तो हो... पर
प्रभाव ही है..जो तुमको पंगु बना देता है..
मूर्ख हो तुम...
अपशब्दों..
और अस्त्रों से
सामर्थ्य.. सद्भाव.. और विचार नहीं..
केवल शरीर मरता है..
फिर भी तुम
ऐसे तुच्छ कार्य करते हो..
अपने अहं और अज्ञान से डरो..
मुझसे क्यों डरते हो..
मैं अमर हूँ,
मैं नशवर हूँ,
मैं संभावना हूँ..
मैं एक शरीर... एक संगठन... एक विचार नहीं..
"सृजन और सहयोग" की सद्भावना हूँ
Wednesday, June 23, 2010
शुष्क ह्रदय के सागर तट पर
क्यों फैला फेनिल हो मृदु जल
क्यों मन की उत्ताल तरंगों
ने तोड़ी धाराएँ अविरल
क्यों दल द्रव अधरों से वाष्पन
होता रहा सान्द्र भावों का
क्यों प्रतिबिंबित मुखमंडल पर
अंकित होता रहा अमंगल!
क्यों निज जीवन के दर्शन को
समझ सकूँ वो समय न पाया
क्यों भविष्य के बंद पृष्ठ में
होती रही सदा कुछ हल-चल
साक्ष्य मान अग्नि को
विपणन विशावासों का बहुत हुआ था..
पर यथार्थ के दरवाजे पर
तार तार लटका था आंचल...
दिव्य दृष्टि के संकेतों में
खोज खोज कर नए भरोसे
कितनी बार किये अपने ही, मन ने
मुझसे नए नए छल..
आज और कल, कल आयेगा
वर्तमान पीछे जायेगा..
फिर भविष्य हाथों में होगा
जब तक मुझे समझ आयेगा..
प्रश्न कौन से का, क्या है हल?..
Wednesday, October 7, 2009
आलिंगन..
आलिंगन..
नैनो मैं भर कर अतुल प्रेम
उठती सांसो की कुशल क्षेम
लेकर बाँहों मैं भर लेता
मेरा मन मंदिर कर देता
आलिंगन वो यूँ कर लेता..
बाँहों को मिलता चिर विराम
कांधे पर झुकती घनी शाम
स्फुठित अधरों का स्वर गुंजन
दो मन हो जाते एक धाम
व्याकुल तन पावन कर देता
आलिंगन वो यूँ कर लेता...
भावों को जकडे प्राण खड़े
एकात्म हुए जग जग विचरें
हो मुक्त ह्रदय के दर्पण से
सब युग मोती बनकर बिखरें
सतयुग द्वापर या फिर त्रेता
आलिंगन वो यूँ कर लेता..
अंतर को लेकर अंजुली में
मैं अर्घ्य दिए जाती अविरल
मुझको कर कनक प्रभा उसकी
जगमग कर देती सब जल
निद्रा से रवि ज्यूँ हो चेता
आलिंगन वो यूँ कर लेता..
स्पर्श...
संवेदना मनुहार की
आत्मा की अर्चना और
सत्यता संसार की
स्पर्श से लिख दूं कहो …
शरण मैं आगोश की
मदहोशियाँ जाती मचल
प्रणय की वो प्यास लेकर
नयन जब जाते है जल
कर रही खामोशिया
उदघोषनाये प्यार की
स्पर्श से लिख दूं कहो ……
उँगलियों मै प्रेम सिमटा
आसमान पर कुछ लिखूं
साँस लपटें बन के तन की
तुम जलो मैं भी जलूं
ख़त्म करदें राख होकर
तपिस तन त्यौहार की
स्पर्श से लिख दूं कहो
उन्मुक्त चाह...
शुभ्र कुसुम मैं हो सुगंध
या शीतल मलयज मंद मंद
बन मेघों का मल्हार राग
या फिर अवनी के मधुर छंद
प्राणों मैं आकर बस जाना
एक प्रेम सुधा बरसा जाना
कर देना मुखरित अंग अंग
आलिंगन मैं रत संग संग
कुछ रास अनोखी नए ढंग
खुलती सांसों की राह तंग
उर कह दे जीवन पहचाना
एक प्रेम सुधा बरसा जानाले
ले हिम बिंदु से, धवल रूप
और तीक्ष्ण समय की सौम्य धूप
आच्छादित कर निज अंध कूप
मन दीन दयामय बने भूप
स्निग्ध चांदनी बन आना
एक प्रेम सुधा बरसा जाना
तत्पर हो तकना राह राह
भावों का ऐसा है प्रवाह
उद्दगम की कैसे मिले थाह
क्यों जगती है उन्मुक्त चाह
समझोगे तो समझा जाना
एक प्रेम सुधा बरसा जाना
Wednesday, September 30, 2009
चलो फिर वहीँ लौट चलें...
चलो आज फिर .लौट चलें ज़िन्दगी की उन गलियों में
जहाँ केवल सुबह हुआ करती थी
तुम्हारी उनीदीं आँखों में ,..
जहाँ केवल सुरमई हवा बहती थी
तुम्हारे आँचल में
चलो फिर वहीँ लौट चलें...
वो बेरंग बरगद की छितरी लटों को
मुंह चिढाते तुम्हारे घने काले केश..
प्रभा समेटे तुम्हारे नयन
बरबस बन उठते थे दरवेश..
चलो फिर वहीँ चलें
जहाँ तुम्हारी कल कल करती हंसी
करती थी अनूठे अनुरोध,
ध्वस्त होते रहे अनगिनत अवरोध
ब्रह्माण्ड से बेखबर,
निश्चिंत,निर्विकार,निर्बाध बहता रहा
आमोद और प्रमोद
चलो फिर वहीँ चलें
बन्धनों के पार में
उस अनूठे संसार में
जहाँ इच्छाओं ने जीना सीखा था
और कितनी बार हमने डबडबाती आँखों से
पीना सीखा था
चलो फिर वहीँ चलें...
जहाँ सपने संग संग जीते थे
मिटने-लुटने में भी चैन था
नाज़ुक शर्म सरक जाती थी बेबस पल्लू सी
ये नीरस दिल भी कभी बेताब और बैचैन था
चलो फिर वहीँ चलें
जहाँ हम एक दुसरे की बाहों में लिपट कर
जी भर सोये थे
और एक दिन गले लग कर जार - जार रोये थे
चलो फिर वहीँ चलें ..
अबकी बार... लौटें तो.. कुछ ऐसा कर जाएँ
कि...
मैं तुम और वो वक़्त वहीँ..बस उसी जगह..
सदा... सदा के लिए ठहर जाए...
सुबह...
क्षितिज पर देखो धरा ने
गगन को चुम्बन दिया है
पवन हो मदमस्त बहकी
मेघ मन व्याकुल हुआ है
क्षितिज पर देखो धरा ने
गगन को चुम्बन दिया है
एक हलचल है नदी मैं
रश्मियों ने यूँ छुवां है
कुसुम अली से पूछते है
जाग तुझको क्या हुआ है
नयन मलती हर कलि का
सुबह ने स्वागत किया है
क्षितिज पर देखो धरा ने
गगन को चुम्बन दिया है
पंछियों के स्वर सुनहरे
हर्ष स्वागत कर रहे है..
मंदिरों की घंटियों से
मन्त्र झर झर झर रहे है
कूक कोयल की सुनी
और झूमने लगता जिया है
क्षितिज पर देखो धरा ने
गगन को चुम्बन दिया है....................