EK BINDU MAIN, DHARA TUM SWANS MAIN JEEVAN BHARA TUM. TUM HRIDAY TUM PRAN MERE. YUG ANANTO KI VARA TUM... EK BINDU MAIN.. DHARA TUM..

Wednesday, September 30, 2009

चलो फिर वहीँ लौट चलें...

चलो फिर वहीँ लौट चलें...
चलो आज फिर .लौट चलें ज़िन्दगी की उन गलियों में
जहाँ केवल सुबह हुआ करती थी
तुम्हारी उनीदीं आँखों में ,..
जहाँ केवल सुरमई हवा बहती थी
तुम्हारे आँचल में
चलो फिर वहीँ लौट चलें...
वो बेरंग बरगद की छितरी लटों को
मुंह चिढाते तुम्हारे घने काले केश..
प्रभा समेटे तुम्हारे नयन
बरबस बन उठते थे दरवेश..
चलो फिर वहीँ चलें
जहाँ तुम्हारी कल कल करती हंसी
करती थी अनूठे अनुरोध,
ध्वस्त होते रहे अनगिनत अवरोध
ब्रह्माण्ड से बेखबर,
निश्चिंत,निर्विकार,निर्बाध बहता रहा
आमोद और प्रमोद
चलो फिर वहीँ चलें
बन्धनों के पार में
उस अनूठे संसार में
जहाँ इच्छाओं ने जीना सीखा था
और कितनी बार हमने डबडबाती आँखों से
पीना सीखा था
चलो फिर वहीँ चलें...
जहाँ सपने संग संग जीते थे
मिटने-लुटने में भी चैन था
नाज़ुक शर्म सरक जाती थी बेबस पल्लू सी
ये नीरस दिल भी कभी बेताब और बैचैन था
चलो फिर वहीँ चलें
जहाँ हम एक दुसरे की बाहों में लिपट कर
जी भर सोये थे
और एक दिन गले लग कर जार - जार रोये थे
चलो फिर वहीँ चलें ..
अबकी बार... लौटें तो.. कुछ ऐसा कर जाएँ
कि...
मैं तुम और वो वक़्त वहीँ..बस उसी जगह..
सदा... सदा के लिए ठहर जाए...

सुबह...

क्षितिज पर देखो धरा ने

गगन को चुम्बन दिया है

पवन हो मदमस्त बहकी

मेघ मन व्याकुल हुआ है

क्षितिज पर देखो धरा ने

गगन को चुम्बन दिया है

एक हलचल है नदी मैं

रश्मियों ने यूँ छुवां है

कुसुम अली से पूछते है

जाग तुझको क्या हुआ है

नयन मलती हर कलि का

सुबह ने स्वागत किया है

क्षितिज पर देखो धरा ने

गगन को चुम्बन दिया है

पंछियों के स्वर सुनहरे

हर्ष स्वागत कर रहे है..

मंदिरों की घंटियों से

मन्त्र झर झर झर रहे है

कूक कोयल की सुनी

और झूमने लगता जिया है

क्षितिज पर देखो धरा ने

गगन को चुम्बन दिया है....................

Tuesday, September 22, 2009

आखिरी शब्द.......

आखिरी शब्द...

रोज़ की तरह

रोज़मर्रा की वही बातें

और उनके रूप प्रतिरूप

मैं लिखने लगा था

अचानक गिर पड़ी दो लाल बूंदें कलम से

स्तब्ध था मैं

जो कभी हंसती थी, रोती थी, मचलती थी,

पर आज खामोश है,

धीर, गंभीर ,..

मेरी अथाह जिज्ञासा

और मेरे मूक प्रश्नों से उबी..

उदासी में डूबी

कलम ने रुधे गले से बताया

ये दो लाल बूंदें

सामान्य नहीं

स्वर्णिम रक्त की है

उस माटी से उठा कर लायी हूँ

जहाँ वीरो ने अपने प्राण त्याग दिए

राष्ट्र की बलि वेदी पर..

उठा लायी हूँ मैं देखकर उनका निस्वार्थ त्याग

इन बूंदों को

ताकि.. अमर हो सकूँ उनकी तरह

अगर हो सके तो लिख दो

संवेदनहीन जनमानस के सोये अन्तःस्थल पर

उन वीरों के अंतिम शब्द....

एक झटके के साथगिर पड़ा हाथ कागज के पृष्ठ पर

टूट गयी कलम अपने आखिरी शब्द कह कर..

सफ़ेद पृष्ठ पर लिखा था..

वन्देमातरम.... जय हिंद..

Monday, September 7, 2009

तुमसा सुंदर चाँद...

केशो का आच्छादित ये आकाश देखकर

हतप्रभ हूँ मैं इतना सुंदर चाँद देखकर

दमक रही दामिनी का दिव्य प्रवास देखकर

हतप्रभ हूँ मैं इतना सुंदर चाँद देखकर

भ्रकुटी के अवरोध अनगिनत

पलकों के अनुरोध अनगिनत

चंचल नैनों से झरते संवाद देखकर

हतप्रभ हूँ मैं इतना सुंदर चाँद देखकर

शब्दों के संधान सुनहरे

मन पर चलते बाण सुनहरे

अधरों पर फैला अद्भुत उन्माद देखकर

हतप्रभ हूँ मैं इतना सुंदर चाँद देखकर

श्रृंगारित यौवन वसुधा है

मुखरित कितनी प्रेम क्षुधा है

गालों पर बिखरा जीवन मधुमास देखकर

हतप्रभ हूँ मैं इतना सुंदर चाँद देखकर

आह्लादित है अंतर सारा

अप्रतिम कितना रूप तुम्हारा

रोम रोम पुलकित उर का उल्लास देखकर

हतप्रभ हूँ मैं "तुमसा सुंदर चाँद" देखकर