EK BINDU MAIN, DHARA TUM SWANS MAIN JEEVAN BHARA TUM. TUM HRIDAY TUM PRAN MERE. YUG ANANTO KI VARA TUM... EK BINDU MAIN.. DHARA TUM..

Wednesday, October 7, 2009

आलिंगन..

आलिंगन..

नैनो मैं भर कर अतुल प्रेम

उठती सांसो की कुशल क्षेम

लेकर बाँहों मैं भर लेता
मेरा मन मंदिर कर देता

आलिंगन वो यूँ कर लेता..

बाँहों को मिलता चिर विराम

कांधे पर झुकती घनी शाम

स्फुठित अधरों का स्वर गुंजन

दो मन हो जाते एक धाम

व्याकुल तन पावन कर देता

आलिंगन वो यूँ कर लेता...

भावों को जकडे प्राण खड़े

एकात्म हुए जग जग विचरें

हो मुक्त ह्रदय के दर्पण से

सब युग मोती बनकर बिखरें

सतयुग द्वापर या फिर त्रेता

आलिंगन वो यूँ कर लेता..

अंतर को लेकर अंजुली में

मैं अर्घ्य दिए जाती अविरल

मुझको कर कनक प्रभा उसकी

जगमग कर देती सब जल

निद्रा से रवि ज्यूँ हो चेता

आलिंगन वो यूँ कर लेता..

स्पर्श...

स्पर्श से लिख दूं कहो
संवेदना मनुहार की
आत्मा की अर्चना और
सत्यता संसार की
स्पर्श से लिख दूं कहो …

शरण मैं आगोश की
मदहोशियाँ जाती मचल
प्रणय की वो प्यास लेकर
नयन जब जाते है जल
कर रही खामोशिया
उदघोषनाये प्यार की
स्पर्श से लिख दूं कहो ……

उँगलियों मै प्रेम सिमटा
आसमान पर कुछ लिखूं
साँस लपटें बन के तन की
तुम जलो मैं भी जलूं
ख़त्म करदें राख होकर
तपिस तन त्यौहार की
स्पर्श से लिख दूं कहो

उन्मुक्त चाह...

शुभ्र कुसुम मैं हो सुगंध

या शीतल मलयज मंद मंद

बन मेघों का मल्हार राग

या फिर अवनी के मधुर छंद

प्राणों मैं आकर बस जाना

एक प्रेम सुधा बरसा जाना

कर देना मुखरित अंग अंग

आलिंगन मैं रत संग संग

कुछ रास अनोखी नए ढंग

खुलती सांसों की राह तंग

उर कह दे जीवन पहचाना

एक प्रेम सुधा बरसा जानाले

ले हिम बिंदु से, धवल रूप

और तीक्ष्ण समय की सौम्य धूप

आच्छादित कर निज अंध कूप

मन दीन दयामय बने भूप

स्निग्ध चांदनी बन आना

एक प्रेम सुधा बरसा जाना

तत्पर हो तकना राह राह

भावों का ऐसा है प्रवाह

उद्दगम की कैसे मिले थाह

क्यों जगती है उन्मुक्त चाह

समझोगे तो समझा जाना

एक प्रेम सुधा बरसा जाना

Wednesday, September 30, 2009

चलो फिर वहीँ लौट चलें...

चलो फिर वहीँ लौट चलें...
चलो आज फिर .लौट चलें ज़िन्दगी की उन गलियों में
जहाँ केवल सुबह हुआ करती थी
तुम्हारी उनीदीं आँखों में ,..
जहाँ केवल सुरमई हवा बहती थी
तुम्हारे आँचल में
चलो फिर वहीँ लौट चलें...
वो बेरंग बरगद की छितरी लटों को
मुंह चिढाते तुम्हारे घने काले केश..
प्रभा समेटे तुम्हारे नयन
बरबस बन उठते थे दरवेश..
चलो फिर वहीँ चलें
जहाँ तुम्हारी कल कल करती हंसी
करती थी अनूठे अनुरोध,
ध्वस्त होते रहे अनगिनत अवरोध
ब्रह्माण्ड से बेखबर,
निश्चिंत,निर्विकार,निर्बाध बहता रहा
आमोद और प्रमोद
चलो फिर वहीँ चलें
बन्धनों के पार में
उस अनूठे संसार में
जहाँ इच्छाओं ने जीना सीखा था
और कितनी बार हमने डबडबाती आँखों से
पीना सीखा था
चलो फिर वहीँ चलें...
जहाँ सपने संग संग जीते थे
मिटने-लुटने में भी चैन था
नाज़ुक शर्म सरक जाती थी बेबस पल्लू सी
ये नीरस दिल भी कभी बेताब और बैचैन था
चलो फिर वहीँ चलें
जहाँ हम एक दुसरे की बाहों में लिपट कर
जी भर सोये थे
और एक दिन गले लग कर जार - जार रोये थे
चलो फिर वहीँ चलें ..
अबकी बार... लौटें तो.. कुछ ऐसा कर जाएँ
कि...
मैं तुम और वो वक़्त वहीँ..बस उसी जगह..
सदा... सदा के लिए ठहर जाए...

सुबह...

क्षितिज पर देखो धरा ने

गगन को चुम्बन दिया है

पवन हो मदमस्त बहकी

मेघ मन व्याकुल हुआ है

क्षितिज पर देखो धरा ने

गगन को चुम्बन दिया है

एक हलचल है नदी मैं

रश्मियों ने यूँ छुवां है

कुसुम अली से पूछते है

जाग तुझको क्या हुआ है

नयन मलती हर कलि का

सुबह ने स्वागत किया है

क्षितिज पर देखो धरा ने

गगन को चुम्बन दिया है

पंछियों के स्वर सुनहरे

हर्ष स्वागत कर रहे है..

मंदिरों की घंटियों से

मन्त्र झर झर झर रहे है

कूक कोयल की सुनी

और झूमने लगता जिया है

क्षितिज पर देखो धरा ने

गगन को चुम्बन दिया है....................

Tuesday, September 22, 2009

आखिरी शब्द.......

आखिरी शब्द...

रोज़ की तरह

रोज़मर्रा की वही बातें

और उनके रूप प्रतिरूप

मैं लिखने लगा था

अचानक गिर पड़ी दो लाल बूंदें कलम से

स्तब्ध था मैं

जो कभी हंसती थी, रोती थी, मचलती थी,

पर आज खामोश है,

धीर, गंभीर ,..

मेरी अथाह जिज्ञासा

और मेरे मूक प्रश्नों से उबी..

उदासी में डूबी

कलम ने रुधे गले से बताया

ये दो लाल बूंदें

सामान्य नहीं

स्वर्णिम रक्त की है

उस माटी से उठा कर लायी हूँ

जहाँ वीरो ने अपने प्राण त्याग दिए

राष्ट्र की बलि वेदी पर..

उठा लायी हूँ मैं देखकर उनका निस्वार्थ त्याग

इन बूंदों को

ताकि.. अमर हो सकूँ उनकी तरह

अगर हो सके तो लिख दो

संवेदनहीन जनमानस के सोये अन्तःस्थल पर

उन वीरों के अंतिम शब्द....

एक झटके के साथगिर पड़ा हाथ कागज के पृष्ठ पर

टूट गयी कलम अपने आखिरी शब्द कह कर..

सफ़ेद पृष्ठ पर लिखा था..

वन्देमातरम.... जय हिंद..

Monday, September 7, 2009

तुमसा सुंदर चाँद...

केशो का आच्छादित ये आकाश देखकर

हतप्रभ हूँ मैं इतना सुंदर चाँद देखकर

दमक रही दामिनी का दिव्य प्रवास देखकर

हतप्रभ हूँ मैं इतना सुंदर चाँद देखकर

भ्रकुटी के अवरोध अनगिनत

पलकों के अनुरोध अनगिनत

चंचल नैनों से झरते संवाद देखकर

हतप्रभ हूँ मैं इतना सुंदर चाँद देखकर

शब्दों के संधान सुनहरे

मन पर चलते बाण सुनहरे

अधरों पर फैला अद्भुत उन्माद देखकर

हतप्रभ हूँ मैं इतना सुंदर चाँद देखकर

श्रृंगारित यौवन वसुधा है

मुखरित कितनी प्रेम क्षुधा है

गालों पर बिखरा जीवन मधुमास देखकर

हतप्रभ हूँ मैं इतना सुंदर चाँद देखकर

आह्लादित है अंतर सारा

अप्रतिम कितना रूप तुम्हारा

रोम रोम पुलकित उर का उल्लास देखकर

हतप्रभ हूँ मैं "तुमसा सुंदर चाँद" देखकर

Wednesday, May 6, 2009

आग बनते देखिये

आग बनते देखिये

बिखरी हुई चिंगारियों को

विष उगाते देखिये

इन स्नेह सिंचित क्यारियों को...

नगन होते देखिये

नैतिक नियम जो सर ढके थे

पूजते थे सर झुका हम

बाल जो अनुभव पके थे..

देखते है वक्र दृष्टि ले

सभी वय नारियों को

आग बनते देखिये

बिखरी हुई चिंगारियों को...

देखिये इन बन्धनों को

सौम्यता इनमें कहाँ है

बोध है वो भी अधूरा

गम्यता इनमें कहाँ है..

है स्वयं मैं जो निहित

उन चीखती किलकारियों को

आग बनते देखिये

बिखरी हुई चिंगारियों को...

है कहाँ सम्मान इनमें

कौन सा ईमान इनमें

सोचते है क्षण यही एक

है बसे बस प्राण इनमें..

प्रश्न इनके बेधते है ..

माँ ह्रदय सिसकारियों को..

आग बनते देखिये

बिखरी हुई चिंगारियों को..

चाह थी चिंगारियों से

तम जलेगा दूर होगा ..

है छुपा जो अहं जग मैं

ताप से सब चूर होगा..

स्तब्ध होकर तक रहा हूँ

राख इन फुलवारियों को ..

आग बनते देखिये

बिखरी हुई चिंगारियों को..

समर्पण

समर्पण ओढे

किनारे पर मैं करती रही इन्तेजार!

तुम भी आते रहे

जब जी किया,

मुझे भीगाते रहे,

और फिर

बेपरवाह , बेफिक्र जाते रहे …..

बार- बार मुझे सुखाता रहा

मेरा ही दर्प,

मैं फिसलती गयी

सुनहरे समय की मुठ्ठियों से

और देखो!

कैसे बिखर गया है

तुम्हारे अथाह किनारों पर

मेरा कण कण

रेत बनकर.....

जा रहे हो कोन पथ पर

सरल जीवन, यूँ उकेरे
अतुल मन संदेह घेरे
अश्व तृष्णा,समय रथ पर
जा रहे हो कोन पथ पर
द्रवित है दिनमान प्यारे
श्रंखला बन मेघ तारे
विहग खग बैचैन से है
व्यग्र अली गुंजान सारे
मलिनता का लेप सत् पर
जा रहे हो कोन पथ पर
दृष्टियों मैं गरल आया
वाक्य ले सब प्रबल माया
वचन, दृढ संकल्प, कैसा
शब्द ओढे एक छाया
है कोई अब एक व्रत पर ??
जा रहे हो कोन पथ पर
ह्रदय के ये चक्षु खोलो
सत्य ही बस सत्य बोलो
मन भ्रमित, आश्वस्त करके
स्वयं के ही साथ हो लो
वर्ष बीते , व्यर्थ अवसर
जा रहे हो कोन पथ पर...

रजनी.....

काले केशो सा तम विभोर

तुम छुपा ह्रदय मैं नयी भोर

चंदा, संध्या, साजन , सजनी

तुझमें विश्राम करे रजनी……..

नित सुबह स्पन्दन मुखर मुखर

किरने लाती प्रकाश भर भर

तेरा तम ही तो जीवन है उनका जो जीते हो जलकर

आभास नए सुख का देती

अंतर मैं जैसे पीर घनी…..

तुझमें विश्राम करें रजनी..

तेरा चिर परिचित कृष्ण वर्ण

जिसमें कुछ और नहीं रचता

तुझमें मिटने का साहस है

तुझको कुछ और नहीं जंचता

तेरे तम से खुद को धोकर

तुझसे सजकर सूरज उगता

दिन जीवन देकर अमर किया

और खुद अंधियारी रात बनी

तेरा विश्राम कहाँ रजनी.....

तू प्रेरक, पावक, सौम्य, शांत
फिर भी सदियाँ क्यूँ खड़ी भ्रांत??

जग तुझमें पता चिर विराम

हारे, जीते, सब विकल, क्लांत

ये समय समर्पण मौन मौन

निस्वार्थ भावः से पूर्ण धनी

तुझमें विश्राम करे रजनी.....

अल्लाह का मंदिर

राम तुम आना ,

आओगे तो

साथ मैं खुदा को लेकर पश्चिम से आना

सुना है ईशु वहां रहते है

कभी कभी एक गरीब के घरों को तोड़ते बम कहते है ,

तुम आना बर्मा होते हुए

बुद्धा को साथ ले आना

वो सडको पर कहीं पड़े मिल जायेंगे

तुम आओगे तो वाहे गुरु , जरूर आएंगे

वरना वो आना नहीं चाहते है

क्यूंकि लोग उनको सचमुच बुलाना नहीं चाहते है

अगर आ जाओ तो , अयोध्या मत जाना

वहां लोग तुम्हारा ,व्यापर करते है

हिन्दू मुस्लिम सभी सरयू से खून भरते है

जब आना तो कश्मीर जाना

जहाँ एक गरीब माँ का पूरा खानदान कब्र मैं दबा है

वो आप सब से बहुत खफा है

उसको मुस्कुराहट देने का

एक काम अदद करना

उसके दिल मैं एक मंदिर बनाने मैं

अल्लाह की मदद करना .....