आलिंगन..
नैनो मैं भर कर अतुल प्रेम
उठती सांसो की कुशल क्षेम
लेकर बाँहों मैं भर लेता
मेरा मन मंदिर कर देता
आलिंगन वो यूँ कर लेता..
बाँहों को मिलता चिर विराम
कांधे पर झुकती घनी शाम
स्फुठित अधरों का स्वर गुंजन
दो मन हो जाते एक धाम
व्याकुल तन पावन कर देता
आलिंगन वो यूँ कर लेता...
भावों को जकडे प्राण खड़े
एकात्म हुए जग जग विचरें
हो मुक्त ह्रदय के दर्पण से
सब युग मोती बनकर बिखरें
सतयुग द्वापर या फिर त्रेता
आलिंगन वो यूँ कर लेता..
अंतर को लेकर अंजुली में
मैं अर्घ्य दिए जाती अविरल
मुझको कर कनक प्रभा उसकी
जगमग कर देती सब जल
निद्रा से रवि ज्यूँ हो चेता
आलिंगन वो यूँ कर लेता..