आलिंगन..
नैनो मैं भर कर अतुल प्रेम
उठती सांसो की कुशल क्षेम
लेकर बाँहों मैं भर लेता
मेरा मन मंदिर कर देता
आलिंगन वो यूँ कर लेता..
बाँहों को मिलता चिर विराम
कांधे पर झुकती घनी शाम
स्फुठित अधरों का स्वर गुंजन
दो मन हो जाते एक धाम
व्याकुल तन पावन कर देता
आलिंगन वो यूँ कर लेता...
भावों को जकडे प्राण खड़े
एकात्म हुए जग जग विचरें
हो मुक्त ह्रदय के दर्पण से
सब युग मोती बनकर बिखरें
सतयुग द्वापर या फिर त्रेता
आलिंगन वो यूँ कर लेता..
अंतर को लेकर अंजुली में
मैं अर्घ्य दिए जाती अविरल
मुझको कर कनक प्रभा उसकी
जगमग कर देती सब जल
निद्रा से रवि ज्यूँ हो चेता
आलिंगन वो यूँ कर लेता..
behtreen rachna
ReplyDeleteek Atulneey Rachna
Waah !!
रम्य रचना.
ReplyDelete"बाँहों को मिलता चिर विराम
ReplyDeleteकांधे पर झुकती घनी शाम
स्फुठित अधरों का स्वर गुंजन
दो मन हो जाते एक धाम
व्याकुल तन पावन कर देता
आलिंगन वो यूँ कर लेता..."
बहुत खूबसूरत भाव है आप के शब्दों से बहुत अच्छा विवरण दिया है भावनाओं का..
बधाई !
आशु