आग बनते देखिये
बिखरी हुई चिंगारियों को
विष उगाते देखिये
इन स्नेह सिंचित क्यारियों को...
नगन होते देखिये
नैतिक नियम जो सर ढके थे
पूजते थे सर झुका हम
बाल जो अनुभव पके थे..
देखते है वक्र दृष्टि ले
सभी वय नारियों को
आग बनते देखिये
बिखरी हुई चिंगारियों को...
देखिये इन बन्धनों को
सौम्यता इनमें कहाँ है
बोध है वो भी अधूरा
गम्यता इनमें कहाँ है..
है स्वयं मैं जो निहित
उन चीखती किलकारियों को
आग बनते देखिये
बिखरी हुई चिंगारियों को...
है कहाँ सम्मान इनमें
कौन सा ईमान इनमें
सोचते है क्षण यही एक
है बसे बस प्राण इनमें..
प्रश्न इनके बेधते है ..
माँ ह्रदय सिसकारियों को..
आग बनते देखिये
बिखरी हुई चिंगारियों को..
चाह थी चिंगारियों से
तम जलेगा दूर होगा ..
है छुपा जो अहं जग मैं
ताप से सब चूर होगा..
स्तब्ध होकर तक रहा हूँ
राख इन फुलवारियों को ..
आग बनते देखिये
बिखरी हुई चिंगारियों को..